बुधवार, 3 जुलाई 2013

अरसे बाद वक्त मिला और अपनी एक अन्य कहानी के साथ उपस्थित हूँ ।

                 गुडिया का ब्याह

उस दिन अचानक ही हमें मालूम हुआ कि हमारी गुडिया अब बडी हो गई है और हमें उसकी शादी कर देनी चाहिएहमें समझ में भी नहीं आता अगर दीदी ने बतलाया न होतागुडिया दीदी ने ही बनाकर दी थी लाल होंठ और काली पहुंचने वाली कपडे क़ी सफेद गुडिया जिसे हम बडे चाव से कभी साडी तो कभी फ्राक पहनाते वह इतनी सुन्दर थी कि किसी भी ड्रेस में अच्छी लगतीकभी हम उसके लम्बे काले बालों की चोटियां बना देते  ज़ब फ्राक पहनाते और उन्हीं बालों का जूडा बन जाता साडी पर ळेकिन, उसकी शादी का खयाल कभी हमारे मन में नहीं आयाहम तो हर रोज क़ी तरह स्कूल से लौटकर अपनी किताबों की अलमारी के निचले खाने में बैठी गुडिया से बातें कर रहे थे उस छोटे से घर में और जगह थी भी नहीं  एक कोने में हमारी आलमारी, दूसरे में दीदी कीबाकी जो जगह बची वहां हमारे बिस्तर दीदी बडी थीं , उन्हैं बहुत पढना होता था , इसलिए उनके लिए एक टेबल कुर्सी भी थी हम तो यूं ही पढ लेते थे ज्यादा पढना भी नहीं था सुबह 7बजे से दस बजे तक का स्कूल फिर घर आकर थोडा होमवर्क और बाकी समय गुडिया का उस दिन भी यही हुआ  हमने किताबें कोने में डालीं , खाना खाया और गुडिया से बातें करने लगे
दीदी अपनी कुर्सी पर बैठी परीक्षा की तैयारी में व्यस्त थीं क़ि अचानक उन्होंने सिर घुमाया और बोलीं '' सुधा, नीलू ! मुझे लगता है तुमलोगों की गुडिया अब बडी हो गई है उसकी शादी कर तुमलोगों को उसे ससुराल भेज देना चाहिए
हम चकित! सब अच्छी बातें दीदी के ही दिमाग में कैसे आती हैं!
ळेकिन, अब अगली समस्या उठ खडी हुई हम गुडिया का दूल्हा कहां खोजें? पूरे मुहल्ले में जिस जिस को हम जानते थे सबके तो गुडिया ही थी , या फिर गुड्डा गुडिया दोनों ही थे अकेला गुड्डा तो किसी का भी नहीं था कोन हमारी गुडिया से ब्याह रचाए?
हम पूरा मुहल्ला अगले दो दिनों में घूम आयेकहीं हमारी सुन्दर गुडिया का दूल्हा नहीं था क्या समझती हो, लडक़ी की शादी आसान होती है? कुक्कू ने सयानेपन से कहा ''मैं जानती हूं , रोज तो मेरी माँ मेरे पपा से यही कहती हैं  मेरी दीदी की शादी होनी है न बहुत ढूंढना पडता है''
हम थक हारकर रूआंसे हो गए
नहीं करना गुडिया का ब्याह!

फिर दीदी ने ही हमारी परेशानी समझीउन्होंने एक गुड्डा बना दिया हम वह गुड्डा शीलू के घर दे आए उनका गुड्डा, हमारी गुडिया! विवाह की तैयारियां होने लगीं

दिन तो रविवार ही रखना थासबकी छुट्टी होती है शादियां रात में होती हैं इसलिए और कोई झंझट नहींसब आ सकते थे और सबने आना स्वीकार भी कर लिया हम सारे दोस्तों को निमंत्रण दे आए।माँ ने छोले पूरियां और गुलाब जामुन बनाने की स्वीकृति दो दी जिन्हें आना था वे सब बाराती ही थे कुल दस बारह बाराती नीलू, पंडित गुड्डे की मम्मी शीलू  गुडिया की मम्मी मैंमुन्ना गुड्डे का पिता बनने को तैयार हुआसबकुछ निर्विघ्न सम्पन्न हो जाता लेकिन शादियां क्या इतनी आसानी से हो जाती हैं! कन्यादान के समय समस्या खडी हो गई जब पंडित ने पूछा '' गुडिया के पापा कौन?''
मुन्ना हमारी तरफ आ गया मैं गुडिया का पिता हूं। गुड्डे के पिता नहीं हैं''
पंडितजी मान गए
शादी हो गई
ऐसी परंपरा है कि लडक़ी ससुराल जाए तो उसके घरवाले रोते हैं और लडक़ी भी इसलिए भी हम रोये अपनी तरफ से भी और गुडिया की तरफ से भी बहुत रो धोकर हमने गुडिया को ससुराल भेज दिया
''बेटियां तो ससुराल जाने के लिए ही होती हैं '' बडों ने कहा।
हमारे लिए घर सूना हो गया
अगले दिन जब हम स्कूल से आये तो हमारे पास करने के लिए कुछ नहीं था
गुडिया ससुराल में थीउसके गहने, कपडे, ख़िलौने, बिस्तर  सब हमने दहेज में दे डाले थेआलमारी के निचले खाने में जगह ही जगह थी हम चाहते तो कुछ किताबें वहां भी जमा स्कते थे लेकिन ऐसा करने का मेरा बिल्कुल ही मन नहीं हुआनीलू को भी ऐसा ही लगा
हमदोनों उदास हो गये
अगले दिन से गर्मी की छुट्टियां शुरू हो गईंअब दोपहर भर करें क्या? दीदी को तो पढना ही पढना है हमें कहेंगी ''सो जाओ''दिन में कहीं नींद आती है! कितना खाली खाली लग रहा हैकिससे बात करेंकिसे नहलायें, खिलायें, सुलायें लोरी सुनायें!
हमें अचानक से रोना आने लगा
''हम शाम को गुडिया को देखने जायेंगे। शीलू के घर।'' मैंने नीलू से कहा।
वह झट सहमत
लेकिन इस तरह अगले ही दिन लडक़ी के माँ बाप का उसकी ससुराल पहुंच जाना कुछ ठीक नहीं लगाहमने अपने बडों से इसकी निन्दा ही सुनी थीइसलिए हमदोनों को ही लगा कि हमें शीलू और मुन्ना को बुलावे का इन्तजार करना चाहिएजब गुडिया का रिसेप्शन होगा तब हम जायेंगे
पहाड ज़ैसे गर्मी की छुट्टियों के दिन
दिन भर गर्म हवा सांय सांय करतीमैं और नीलू ढूंढ-ूंढ क़र पुराने धर्मयुग निकालते और बाल जगत पढतेचार किताबें ऊंची आलमारी से और गिरतीं और दीदी भइया डांट लगाते दो दिन बीत गये कोई खबर नहीं आई
''सुधा नीलू ! तुमलोग बाहर जाकर खेलतीं क्यों नहीं? शाम हो गई तब भी अन्दर ही बैठे रहना है?'' बडों ने पूछा।
''किसके साथ खेलें? शीलू मुन्ना आते ही नहीं।''हमने मायूसी से जवाब दिया।
''क्यों? मुहल्ले में एक उन्हीं के साथ खेलते थे तुम? कुक्कू भी तो है। रीता संगीता क्या हो गया है तुम्हें?'' दीदी ने डांट लगाई।
अब हम क्या बतायेंहमारी गुडिया उनके पास है क्या ये जानते नहीं!
''चलो उस ओर घूम आते हैं। क्या पता शीलू मुन्ना कहीं खेल रहे हों। हम भी बाहर जाते हैं।उधर ही जाकर खेलेंगे।'' नीलू ने कहा।
शीलू और मुन्ना सडक़ पर ही मिल गयेबुढिया की दूकान से जाने क्या खरीद कर लौट रहे थे दोनोंहमने उन्हें रास्ते में ही जा पकडा
''कहां जा रहे हो?''
आलू ले जा रहे हैं। माँ से आलू पराठे बनवायेंगे''
हमारी गुडिया कैसी है?''
''अच्छी है।मजे में है अपने गुड्डे के साथ। '' मुन्ना बोला।
''लेकिन उसे हमारे पास भी आना चाहिए।''
''अभी कैसे आ सकती है! अभी तो बहू भात होना है।''
'' कब करोगे बहू भात?'' हमने बडी आशा से पूछा।
''बतायेंगे न। रूको तो। जब करेंगे तो बुलायेंगे। तब आना।'' मुन्ना सयानेपन से बोला।
'' कब तक रूके रहें हम तुम्हारे बुलावे के लिए। कब से तो रूके हुए हैं हम। खेलने भी नहीं आते।बुलाते भी नहीं।''
''बुलायेंगे।'' दोनों ने एक साथ कहा और चले गए।

हम वापस
''लूडो खेलो।'' भइया ने कहा।
रविवार को आधे घंटे का बाल सभा आता रेडियो पर उसे सुन लेते पूरा सप्ताह बीत गया हम खेलने जाते  कभी शीलू और मुन्ना की शकल नजर न आती मैदान में घर लौटते दीदी अपनी टेबल पर पढती मिलतीं हमें देखकर कभी प्यार से मुस्करा देतीं फिर पढने लगतीं हमारे धैर्य की हद हो गई यह क्या है? हमारी गुडिया लेकर हमीं से ऐंठ? हमने आपस में सलाह की और किसी को कुछ बताए बिना एक दिन हमदोनों शीलू के घर जा पहुंचे।दरवाजा शीलू की माँ ने खोला
''चाचीजी, शीलू कहां है?'' मैंने सादगी से पूछा।
'' आओ आओ, घर पर ही है।अन्दर जाओ।'' चाचीजी ने रास्ता दिखा दिया।
हमदोनों शीलू और मुन्ना के कमरे में
हमारी ही तरह उन्होंने भी अपनी किताबों की आलमारी के निचले खाने में गुडिया घर बनाया हुआ थाउतने ही आराम से, सुखपूर्वक, हमारी गुडिया वहां गुड्डे के साथ बैठी थी जैसी वह हमारे यहांहोती
''देख लिया न, हम भी अच्छे से रखते हैं गुडिया को।'' शीलू बोली।
''उससे क्या! इतने दिन हो गये।तुमलोग आते ही नहीं।बहू भात भी नहीं करते । इसलिए तो हमेंउसे लिवाने आना पडा।'' नीलू तुनक कर बोली।
''ऐसे कोई ले जाता है क्या? ऐसे लडक़ी नहीं जाती है शादी के बाद।'' शीलू की माँ , जो पीछे से हमारा र्वात्तालाप सुन रही थीं, हंसकर बोलीं।
'' लेकिन ये लोग कुछ करते ही नहीं।'' मैं रूआंसी हो आई।
लेकिन वे तबतक अपनी बात कहकर जा चुकी थींबच्चों की बातों में कौन पडे!
''हम तो आज इन्हें ले जायेगें।'' मैं और नीलू जिद पर उतर आये।
''हम नहीं देंगे। अरे वाह! शादी की है तो गुडिया गुड्डे के घर में रहेगी या तुम्हारे घर मैं? पहले सोचना था। हम कहने आए थे कि हमारे घर में शादी करो।''
उससे क्या हमने थोडे दिन के लिए दिया था हमेशा के लिए थोडे ही गुडिया हमारी है गुड्डा भी
हम दोनों को ले जायेंगे''
'' कोई शादीशुदा लडक़ी को वापस ले जाता है क्या?''
''हम ले जायेंगे।''
''गुड्डे को अकेला छोडक़र?''
''उसे भी ले जायेंगे।''
''घर जमाई बनाओगे?''
''बनायेंगे।''
अच्छी खासी बहस और लडाई के बाद गुड्डा और गुडिया , दोनों को हथियाकर  उन्हें बगल में दबाये हुए , सांझ ढले ,हमदोनों विजयी भाव से घर में दाखिल हुए
''जरा देखो इन्हें। फिर से वापस ले आईं अपनी मरियल सी गुडिया और गुड्डा।  मंझली दीदी ने मुंह बिचकाया।
'' यह क्या है? '' दीदी और भइया चौंके।
फिर हम कुछ समझ पाते इससे पहले ही भइया ने आगे बढक़र गुड्डा और गुडिया दोनों ही थाम लिये और हंसते हुए उन्हें बालकनी से हाथ बढाकर नीचे नाले में फेंक दिया



सोमवार, 9 जुलाई 2012

मिट्टी का दिया


मिट्टी का दिया

वह बेहद निराश थी। ऐसा कुछ उसकी कल्पना में नहीं था। उसने उम्मीद की थी , जलते हुए दियों की , या कम से कम मोमबत्तियों की, मिठाइयों और अन्य किस्म के फ़ूड स्टालों की और एक नृत्य-संगीत के कार्यक्रम की। निश्चित ही हिन्दी फ़िल्मों से सम्बन्धित नृत्य-संगीत भी उसका एक हिस्सा होंगे लेकिन केवल वही नहीं। "कम्यूनिटी- इवेन्ट " का और मतलब क्या होगा? कुछ आगे बढ़कर उसकी आँखॊं ने कुछ ऐसा भी पढ़ डाला था जो वास्तव में कार्ड पर लिखा ही नहीं था।
"फ़ायर वर्क्स"!  दीवाली मेला है तो फ़ायर वर्क्स होंगे ही। उसके बिना क्या दीवाली? शहर के विभिन्न कोनों में ,मन्दिरों में, जो अलग अलग दीवाली के आयोजन हो रहे हैं पूरे सप्ताह भर से, जिनमें उसकी सहेलियाँ हो भी आईं, वहाँ पटाखे और फ़ुलझड़ियाँ थीं। बच्चों ने जलाया और आनन्द लिया। हालाँकि अभी दीवाली में पूरा एक सप्ताह बाकी है और ये आयोजन उस मुख्य आयोजन का रिहर्सल नहीं कहे जा सकते क्योंकि दीवाली अभी भी भारतीय समुदाय अपने घर में मनाता है। गणेश-लक्ष्मी की पूजा करता है और फ़िर मन्दिर हो आता है। जब से अमेरिका में भारतीयों की संख्या बढ़ी है, वे अपनी झिझक से बाहर आने लगे हैं। पर्व-त्योहार सार्वजनिक स्थलों पर सामूहिक रूप से आयोजित होते हैं और वे अपने घर को रंगीन बल्ब की लड़ियों से उसी तरह सजा भी देते है जैसे क्रिसमस में अमेरिकी समुदाय सजाता है। अब भले ही भारत से आए माँ-बाप को यह शादी का घर लगे।
"इजन्ट इट टू अर्ली फ़ॉर क्रिसमस ?"  पहली बार, दीप को शाम से ही रंगीन लाइटें लगाते देख उसके मेक्सिकन पड़ोसी ने पूछा था।
"नो, इट इज दीवाली" दीप ने समझाया था। वे रात को पूजा के बाद उसके घर दीवाली की मिठाई भी पहुँचा आए थे। गुलाबजामुन और पेड़े।
अगले दिन पड़ोसी ने बताया कि मिल्क और शुगर का वह काम्बीनेशन उन्हें अच्छा लगा।
तब से इस सबडिविजन में अकेले भारतीय वे अपना घर सजा लेते हैं हर बार।  दीवाली की रात , कुछ मिट्टी के दिए और कुछ लड़ियाँ छोटे बल्बों की घर के बाहर सज जाती है| अब तो सिन्धु भी तीन साल की हो गई। दीप के पीछे- पीछे दौड़ती है हर ओर। रंगीन बल्बों की रोशनी में हँसती हुई उसकी आँखें चमकती हैं तो दीप और तन्वी को लगता है, दीवाली हो गई।
    अब कोई कुछ पूछता भी नहीं। यह "प्रकाश-पर्व" है, भारतीयों का। दीप ने अपने सबडिविजन में सबको समझा दिया है। उसे देख कर उसका मित्र जो दूसरे सबडिविजन में उसी की तरह अकेला भारतीय है, खुले तौर पर  दीवाली मनाने लगा है। घर के दरवाजे पर दीप जला कर।

"मिट्टी का दिया ही क्यों चाहिए तुम्हें ?" पहली दीवाली पर दीप ने तन्वी से बहुत  बहस की थी। बहस उसने तब भी की थी जब तन्वी अड़ गई थी कि धनतेरस पर एक कटोरी ही सही खरीद लाओ। ननदें हँसी थीं - "बर्तन नहीं , गहने खरीदते हैं। सोना-चाँदी।" परोक्ष रूप से किया गया कटाक्ष कि गरीब घर की हो तो सोना-चाँदी खरीदना क्या जानो। बर्तन से आगे तुम्हारे माँ-बाप की हैसियत ही नहीं रही होगी।
उसने ननदों को जवाब नहीं दिया था लेकिन चुपचाप वेब पर धनतेरस की मान्यताओं से सम्बधित लेख , जिसमें लिखा था कि पात्र में लक्ष्मी का निवास माना जाता है और यह मान्यता सम्भवत: तब से रही है जब महाभारत काल में द्रौपदी को सूर्य देव ने वह महापात्र( बर्तन) दिया था जिसमें भोजन तब तक खत्म नहीं होता था जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन कर ले, दीप को पढ़ा दिया था।

फ़िर दीप ने कोई विरोध नहीं किया कभी।
लेकिन मिट्टी के दियों की कीमत हर साल बढ़ जाती है। पहले डालर का एक दिया था। इस बार दीवाली -मेले में "सदा" के स्टाल पर जरी के किनारे वाला, गुलाबी सुनहला, खूबसूरत पेन्टिग वाला दिया देख कर उसकी आँखें ठहर गईं।
"कितने का है?"
"दो डालर पचास सेंट।"
वह बिदक गई। नहीं खरीदना। उसने दीप की ओर देखकर सिर हिलाया। "चलो चलें।"
वह लड़की समझाने लगी - "आप यदि यह दिया खरीदती हैं तो यह राशि "सदा" को जायेगी।" उसने संस्था की जानकारी देता एक रंगीन बुकलेट उसे थमा दिया।
भारत के बच्चों के कल्याण के लिए भारत में काम कर रही संस्था।
नहीं, अब यह वजह भी उसे प्रभावित नहीं करती। ढेरों संस्थाएँ पनप आई हैं अमेरिका में पिछले कुछ  ही सालों में। कुकुरमुत्ते की तरह लगातार उगती जा रही हैं। धनाढ्य भारतीय समुदाय बढ़ चढ़कर अनुदान देता है। कम्यूनिटी न्यूजपेपर में खबरें आती हैं। इतने मिलियन डालर "एकांश " के लिए इकटठे हुए। इतने भारत में काम कर रही "सदा " के लिए, वगैरह वगैरह। फ़िर कोई डिनर का आयोजन होगा। प्रति व्यक्ति कम से कम १०० डालर। यह पैसा भारत के अमुक गाँव में अस्पताल/विद्यालय  खोलने या ऐसे ही किसी काम को जायेगा। वह थक गई है यह सब देखते- सुनते।
"कहाँ कहाँ दान करें और कितना ? एक सीमा तो हो। और जब अपनी ही जेब ढीली हो? उसे इन संस्थाओं से जुड़े लोगों की नीयत पर भरोसा हो यह बात नहीं। पैसा भारत पहुँचता होगा, लेकिन क्या सही लोगों तक भी पहुँच जाता होगा? सारा का सारा ? क्या जानकी वल्लभ शास्त्री की पंक्तियाँ - ऊपर ऊपर पी जाते हैं जो पीनेवाले हैं , कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीनेवाले हैं, या फ़िर दुष्यंत कुमार  - यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं कई नदियाँ , मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा -अप्रासंगिक हो गए अब? काश ऐसा होता ! कालाहांडी का सच भी पढ़ा है। गैर सरकारी संस्थाओं में उस मनोवृत्ति के लोग नहीं होते होंगे क्याढेर सारे सवाल अजगर की तरह फ़न उठाते हैं और वह जानती है कि इनके मूळ में उसकी अपनी व्यथा भी है। पैसा सारी समस्याओं का हल नहीं है लेकिन फ़िलहाल उसी  जरूरत से जूझ रही है वह !

उसने चुपचाप एक डालर दान पेटी में डाल दिया और पीछॆ मुड़ी।
एक वीडियोग्राफ़र लगातार तस्वीर उतार रहा था।
तो क्या जो इतनी देर उसे बातों में उलझाए रखा वह इसलिए भी था कि उसकी तस्वीर ली जा रही थी, उसके जरी के काम वाले सलवार सूट की, जो भीड में भी चमक रहा था !
काउन्टर पर खड़ी लड़की मुसकराई। शायद तन्वी का चेहरा उसने पढ़ लिया था।  मन के भावों को छुपा जो नहीं पाता! वह भी कैमरे में कैद हो गया होगा।
मन खट्टा हो गया।
दीपक ले कर ही क्या कर लेती ! अन्दर का अंधेरा बाहर के उजाले से भरता क्या? बाहर का अंधेरा अन्दर के उजाले से भले ही छँट जाएकब से हाथ पैर मार रही है। अब तक तो नौकरी मिली नहीं ? अब तो छह महीने में सिन्धु स्कूल जायेगी, उसका भी सोचना है। दीप की छॊटी सी तन्ख्वाह है और हर साल वे दीपक जलाते हैं कि इस साल शायद लक्ष्मी उनके अमरीका के इस घर का रास्ता पा जाए। भारतीयों का एक वर्ग उस जैसों का भी है, जो किराए के मकान में पाँच आठ सालॊं से इसीलिए रह्ते चले रहे हैं कि जब तक ग्रीन कार्ड नहीं मिलता , बेहतर नौकरी नहीं मिलती , तबतक इसी तरह खींचना है। कौन जाने कब कल को भारत वापस लौटना पड़ेऔर इन्हें डोनेशन चाहिए। डॊनेशन देने से नौकरी मिलेगी क्या?
 "चलो कुछ खा लेते हैं।" वह दीप से बोली।
ढेर सारे स्टाल।  भारतीय भोजन ही है यहाँ भी। वह कुछ अलग-सा खायेगी। छोले- टिकिया,जैसा कुछ। खूब तीखा , चरपरा। स्टेज के दोनों ओर दो बड़े टी. वी स्कीन हैं।  बड़े-बड़े। दूर से दिखाई देते हैं। वह कहीं पर भी खड़ी हो सकती है और प्रोग्राम देख सकती है। घोषणा हो रही है। एक के बाद एक नवीनतम फ़िल्मों के नाम रहे हैं। इसका गाना इस नृत्य स्कूल की छात्राएँ/छात्र पेश करेंगे और अब उस फ़िल्म का वो सबकी जुबान पर चढ़ा गाना उस नृत्य स्कूल की तरफ़ से। हर घोषणा के बाद खुले मैदान का यह हिस्सा तालियों की गूँज से भर जाता है। नृत्य के बाद भी वही शोर और तालियाँ - उत्साहवर्धन करती हुई। यह शहर का मुख्य हिस्सा है। सड़क के दोनों ओर दूकानें। सड़क पर तेजी से दौड़ती कोई कार जब यहाँ आकर धीमी होती है तो तन्वी समझ जाती है, उसी की तरह कोई भारतीय उतरेगा कार से और कार आगे जाकर पार्किंग की जगह तलाशेगी। कुछ गोरे भी हैं भीड़ में। ताल देते हुए। स्टेज पर उद्घघोषक की आकर्षक आवाज लगातार गूँज रही है, अंग्रेजी में। बीच बीच में हिन्दी में कुछ चलताऊ किस्म के चुटकुले भी सुनाए जा रहे हैं। भीड़ ठहाके लगा रही है। यह कार्यक्रम रात के दस- साढ़े दस तक तो चलेगा।

शहर के इस हिस्से में वह पहली बार आई है। सिटी टाइम्स स्क्वायर की भव्य इमारत तन्वी को अच्छी लगी। चारों तरफ़ तेज प्रकाश। इसी इमारत के खुले मैदान में ये सारे आयोजन हो रहे हैं। आस -पास का पूरा हिस्सा खूबसूरत है। खूबसूरत इमारतों से सजा हुआ-सा। नया बना। नएपन का अहसास ही सुखद होता है। थोड़ी देर को वह खुश हो गई।
अगली घोषणा हुई - नृत्यश्री स्कूळ वाले कत्थक पेश करेंगे। वह सावधान हुई। कत्थक यानी कथा कहो। बचपन में वह खुद कत्थक की छात्रा थी। तोड़े और टुकड़े खूब आते थे उसे। भाव प्रदर्शन भी। कितनी कथाएँ कहीं उसने, कॄष्ण लीळा की, कथक के माध्यम से।  जरी के किनारे वाला घाघरा, गहने और ढेर सारा मेकअप। एक आकर्षण उस उम्र में उन वस्त्रों और मेकअप का भी था। सुन्दर दिखने का। अब हँसी आती है , वह सब याद करके। लेकिन, शास्त्रीय नृत्य की गहराइयों में डूबना तन्वी ने तभी सीखा। उसका सम्मान करना भी। आज अतीत से साक्षात्कार करेगी, विदेश की धरती पर। समय कितने रूपों में लौटता है! हम सोचते हैं कि बीता हुआ समय वापस नहीं आता! वह आता रहता है बार-बार, नए- नए पात्रों को लेकर। फ़र्क बस भूमिका बदलने का है। कभी आप स्टेज पर, कभी दर्शक दीर्घा में!..... वह खोई-सी खड़ी थी कि भीड़ का वापस लौटता रेला उसे ढकेल गया। ना, किसी को रुचि नहीं शास्त्रीय नृत्य में। यह अगली पीढ़ी हैअमेरिका में पैदा हुई पली-बढ़ी भारतीयों की अगली पीढ़ी, जो हिन्दी फ़िल्मों के गानों पर थिरकती है। उन्हें समझने के लिए हिन्दी सीखती है। बस इससे आगे कुछ नहीं। कुछ भी नहीं। तन्वी किस दुनिया में रहती है जो इतना भी नहीं समझती ?

सहसा उसकी नजर अपने पड़ोसी के बारह साला बेटे पर पड़ी। वह भी लौट रहा था। सिल्क का लम्बा कुरता और जीन्स पहने हुए। उसकी निगाहें तन्वी से टकराईं। शायद उसकी आँखों ने भीड़  मे दीप को तलाशा और तन्वी के इर्द - गिर्द पाकर वापस तन्वी पर निगाहें टिका दीं तन्वी को उसका इस तरह देखना अच्छा नहीं लगा। हँसी भी आई। बारह बरस का छोकरा और खुद को हीरो समझता है जैसे। यहाँ बच्चे कितनी जल्दी बड़े हो जाते हैं !
दीप काउन्टर पर से वापस आया - “नहीं , कोई फ़ायर वर्क्स नहीं है। कोई दीपोत्सव नहीं। मन्दिर जाना अगले साल, यदि वह सब चाहिए। वैसे हरीश बता रहा था कि मीनाक्षी मन्दिर को छोड़कर बाकी जगहों पर इस साल मेनली बालीवुड ही था। यह दीवाली-मेला है डियर। बालीवुड डान्स और सांग का शो है। फ़िर फ़ैशन शॊ। अभी देर तक चलेगा। चाहो तो रुक सकती हो। लेकिन ऐसा ही है, बस।"

  अगला गाना शुरू हुआ। फ़िर बालीवुड। लौटते लोग ठहर गए - "कच्ची कलियाँ मत तोड़ो, मालन देगी गालियाँ........" बहुत सारे लड़के-लड़कियाँ स्टेज पर। एक बार फ़िर हिन्दी फ़िल्मों का संसार मुखर हो उठा। सीटियाँ और शोर..... बड़े, बच्चे, युवा, सब थिरक रहे थे। मेला अब फ़िर अपने पूरे उठान पर था।
  तन्वी देख रही थी, वे कच्ची कलियाँ तोड़ रहे हैं। लगातार तोड़ते जा रहे हैं। कोई मालन है कहीं ? और हो भी तो क्या? वे आश्वस्त हैं। आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। वे केवल कच्ची कलियाँ ही नहीं तोड़ेगें, एक दिन पूरा बागीचा उठा ले जायेंगे वे। आने वाला कल उन्हीं का है।

  उसे घर पर सो रही अपनी नन्हीं कली का खयाल आया। सिन्धु! वह उसे अम्मा के पास छोड़ आई थी। वह यहाँ नहीं हैउसने अपने अन्दर एक खुशी महसूस की। नहीं, पूरा बगीचा वे नहीं ले जा सकते। कुछ तो बचा रहेगा ही। जो कुछ बचा रहेगा , जितना कुछ बचा रहेगा, हो सकता है वही आकाशदीप हो जाए!
आकाशदीप सही , मिट्टी का दिया भी काफ़ी होगा।
कुछ मिट्टी के दिए ही बचे रहें। जोत उनकी भी होती है। जोत से जोत जले!
उसने मह्सूस किया कि उसे एक मिट्टी के दिए की सख्त जरूरत है। हर साल, हर दीवाली पर उसकी पूजा में मिट्टी का दिया होना ही चाहिए। वरना, कल को वह सिन्धु को अपनी बात कभी नहीं समझा पायेगी।


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इला प्रसाद
जन्म ; २१ जून को झारखंड की राजधानी राँची में।

शिक्षा: पी एच डी( भौतिकी)

लेखन : कविता, कहानी, संस्मरण , लेख आदि साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन के अतिरिक्त विज्ञान सम्बन्धी लेखों का हिन्दी में अनुवाद और स्वतंत्र लेखन भी। भारत एवं अन्य देशों की  पत्र-पत्रिकाओं में लगभग नियमित लेखन।  उत्तरी अमेरिका के प्रवासी रचनाकारों के विभिन्न संकलनों में रचनाएँ संकलित। कुछ समय कनाडा की पत्रिका "हिन्दी चेतना " के सम्पादक मंडल में। हिन्दी चेतना के बुल्के विशेषांक के सम्पादन में प्रमुख भूमिका। सम्प्रतिअमेरिका की पत्रिका "हिन्दी जगत" के सम्पादक मंडल में।

प्रकाशित कृतियाँ :   "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रहएवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) एक  कहानीसंग्रह प्रकाशनाधीन।
 रुचियाँ:   योग, रेकी, बागवानी, पर्यटन एवं पुस्तकें पढ़ना।

व्यवसाय : अध्यापन(भौतिकी) लोन स्टार कालेज सिस्टम से सम्बद्ध।

सम्पर्क  :

ILA PRASAD
12934, MEADOW RUN
HOUSTON, TX-77066
USA

  मेल ;   ila_prasad1@yahoo.com